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2.5 अरब साल पुराने अरावली की छाती पर खंजर चलाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर क्यों हो रहा विवाद, जानिए आखिर क्या है अरावली की कहानी?

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राष्ट्रीय
17 Dec 2025, 03:01 pm
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रिपोर्टर : Jyoti Sharma

Aravalli Hills Case: 2.5 अरब साल पुरानी अरावली हिल्स, ये सिर्फ पहाड़ियां नहीं बल्कि राजस्थान समेत समूचे भारत का वो रक्षा कवच है जो सिर्फ सीमा पार के दुश्मनों को ही नहीं बल्कि पश्चिम से आने वाली जानलेवा लू को भी रोकती हैं। लेकिन भारत के इस रक्षा कवच पर खनन का हथौड़ा चलने वाला है। जी हां, दरअसल राजस्थान की लाइफलाइन कही जाने वाली अरावली पर्वत शृंखला को लेकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दे दिया है जिससे पर्यावरण विशेषज्ञ चिंता में पड़ गए हैं। देखा जाए तो ये सिर्फ इनकी चिंता नहीं बल्कि ये पूरे देश के हर एक नागरिक की चिंता है। इस फैसले के मुताबिक अरावली के 100 मीटर तक ऊंचाई वाले पहाड़ों पर खनन को परमिशन दे दी गई है। अब ये चिंता लोगों को खाए जा रही है कि अगर ये फैसला अस्तित्व में आ गया तो अरावली रेंज का पूरा इलाका ही रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। अब सवाल ये है कि इतना नुकसान जब देश को उठाना पड़ रहा है तो सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला दिया ही क्यों? क्यों इस क्षेत्र में माइनिंग को वैध किया गया है?

Aravalliकी क्या है भौगोलित सूरत?

अरावली हिल्स जो हिमालय से भी ज्यादा पुरानी है। ये देश की पहचान है, आन-बान-शान है। ना जाने कितनी बार इसने राजस्थान समेत समूचे देश को विदेशी आक्रांताओं के हमले से बचाया है। गरासिया समेत ना जाने कितनी जनजातियां इन पहाड़ों के साए में अपनी संस्कृति के साथ आज भी अपना बसेरा बनाए हुए हैं। लेकिन अब ये बसेरा उजड़ने वाला है। भौगोलिक और रक्षा के नजरिए से देश को बचाने वाला ये सुरक्षा कवच अब कभी भी टूट सकता है। इसका कारण सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला है जिसने अरावली पर माइनिंग को वैध करार दिया है। अरावली हिल्स (Aravalli Hills) का ऊपरी हिस्सा दिल्ली-एनसीआर और हरियाणा तक फैला हुआ है। पहले दिल्ली का रायसीना हिल भी अरावली का हिस्सा था। लेकिन ब्रिटिश काल में ही इसे समतल कर दिया गया था। अरावली के बीच का हिस्सा दिल्ली से राजस्थान के उदयपुर तक फैला हुआ है। वहीं निचला हिस्सा गुजरात तक फैला हुआ है। सबसे अहम बात ये है कि पूरी अरावली रेंज का 80 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में है। इसकी सबसे ऊंची चोटी जिसे गुरु शिखर भी कहते हैं, वो 1,727 मीटर की है जो माउंट आबू में है। अरावली के साए में ही गरासिया जनजाति की सांस्कृतिक पहचान बसती है। इनकी आजीविका और जीवन जीने के प्राकृतिक संसाधन तक अरावली पहाड़ियों, इसके जंगलों पर निर्भर हैं। पूरी अरावली रेज की लंबाई लगभग 700 किलोमीटर की है।

अरावली देश और इसकी जलवायु के लिए कितना अहम है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये पहाड़ियां गंगा-जमुना के मैदानों को रेगिस्तान में बदलने से रोकती हैं। अरावली का अस्तित्व तब से है जब धरती पर इंसान तक नहीं थे। जी हां, लगभग 3.5 अरब साल पहले जब इंडियन टेक्टॉनिक प्लेट, यूरेशियन टेक्टॉनिक प्लेट से टूटकर अलग हो रहीं थी तब ये अरावली रेंज अस्तित्व में आई। कई रिपोर्ट्स में ये सामने आया है कि अरावली से ही भारतीय उपमहाद्वीप में जीवन की संभावना बनी। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक अरावली में कुल 1281 पहाड़ थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक अब इसमें से महज 1048 ही 100 फीट से नीचे हैं। यानी इन पर आदेश के मुताबिक माइनिंग हो सकती है जो प्रोटेक्शन अरावली पर्वतमाला को मिली हुई है वो इतने हिस्से को नहीं मिलेगी क्योंकि ये पहाड़ कागज़ में लिखे कानून के इस पैरामीटर तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।

किस केस में सुप्रीम कोर्ट ने दिया ये फैसला

अब आपको बताते हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने किस केस की सुनवाई पर ये फैसला दिया था। तो बता दें कि 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया था। जिसमें उत्तर-पश्चिम भारत में 692 किलोमीटर की सीमा को परिभाषित करने के तरीके को मानक देने की मांग की गई थी। अब सवाल आता है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने ये पैरामीटर कैसे सेट किए तो बता दें कि ये मामला 30 साल पुराना है जो नीलगिरी के जंगलों की हिफाजत से जुड़ा हुआ है। साल 1995 में तमिलनाडु के एक जमींदार TN गोदावर्मन ने सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के खिलाफ एक सिविल पिटीशन दायर की थी जिसमें कहा गया था कि नीलगिरी के इलाके में मौजूद जंगल में बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई होती है। इसके बाद 12 दिसंबर 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि, कौन सी जमीन जंगल की और कौन सी नहीं, यह पैमाना सरकार के नोटिफिकेशन से तय नहीं होगा लेकिन इस केस में अंतरिम अपील के आधार पर देश के दूसरे वन क्षेत्रों पर अपने फैसले देने जारी रखे। 31 जनवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और गुजरात सरकार की अंतरिम अपील के आधार पर एक सेंट्रल एंपावर्ड कमेटी बनाने के निर्देश दिए। जिसे ये काम दिया गया कि इस कमेटी को काम दिया गया कि वो अरावली और उससे जुड़े वन्य क्षेत्र की परिभाषा तय करे। इसके बाद मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने ये काम मल्टी एजेंसी कमेटी को सौंप दिया। इसी कमेटी ने अब अरावली की ये नई भाषा गढ़ी है।

कमेटी ने FSI की रिपोर्ट मानने से किया इनकार

अब अरावली की परिभाषा बनी किस पैमाने पर , उसे भी जान लेते हैं। दरअसल 2010 में FSI की एक सर्वे रिपोर्ट पेश हुई थी, जिसमें 3 डिग्री ढलान और 20 मीटर ऊंचाई तक की जमीन को पहाड़ माना था और पहाड़ के आसपास 100 मीटर के दायरे और दो पहाड़ों के बीच 500 मीटर के दायरे को संरक्षित क्षेत्र मानने का सुझाव दिया था। लेकिन 2024 में बनी टीम ने इस पैमाने को ही मानने से इनकार कर दिया और खुद का पैमाना बना लिया कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले पहाड़ों को अरावली का हिस्सा नहीं माना जाएगा। इसके चलते अरावली का 90% हिस्सा संरक्षित क्षेत्र से बाहर हो गया। रिसर्च में पता चला है कि 2010 में FSI ने जो सर्वे रिपोर्ट पेश की थी। उसके मुताबिक अरावली में राजस्थान और हरियाणा की सीमा पर 3200 जगहों पर अवैध खनन हो रहा था। राजस्थान में तो 128 में से 31 पहाड़ियां खोद डाली गई थीं और जमीन के लेवल पर ला दी गईं थीं। आपको जानकर हैरानी होगी ये खनन इतने धड़ल्ले से हुआ है कि 1975 से 2019 के बीच अरावली का 8% हिस्सा नक्शे से गायब ही हो गया। जिससे हरियाणा का 3.6 लाख हेक्टेयर हिस्सा रेगिस्तान में बदल गया। एक तथ्य ये भी है कि हर साल राजस्थान सरकार अरावली में खनन की लीज़ और रॉयल्टी के जरिए 5000 करोड़ की आमदनी करती है। अरावली के ही आंचल से चंबल, साबरमती, लूनी, बनास सहित एक दर्जन से ज्यादा नदियां निकलती हैं। इसके अलावा सरिस्का, रणथंबौर, मुकुंदरा और कैला देवी टाइगर रिजर्व भी इसी पर्वतमाला का हिस्सा हैं। इसके अलावा 15 वन्य जीव अभयारण और 10 इकोसेंसिव ज़ोन भी अरावली का हिस्सा है।

लेकिन 20 नवंबर 2025 सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया एक्ट में तत्कालीन CJI BR गवई, जस्टिस विनोद चंद्र और जस्टिस एनवी अंजरिया की बेंच ने जब ये फैसला दे दिया। तो ये प्रकृति के साथ धोखा साबित हुआ। जिस प्रकृति ने इंसानों को जीवन दिया, उन इंसानों ने ही अपने फायदे के लिए उस अरावली का गला काटने का फैसला ले लिया। जिसकी वजह से ही ये इंसान इतनी चैन और शांति से रह रहे हैं। इस फैसले के खिलाफ सिर्फ पर्यावरण प्रेमी ही नहीं बल्कि आम जनता समेत तमाम संगठन और सियासतदान भी आवाज़ उठा रहे हैं। ताकि अरावली को बचाया जा सके। अब ये भविष्य के हाथ में है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करता है नहीं।


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