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'चुनावी स्याही' में ऐसा क्या खास है कि नहीं मिटती है, 1962 से अब तक क्यों नहीं हुआ बदलाव ?

लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियां शबाब पर है. देश में 19 अप्रैल को लोकसभा की 102 सीटों पर वोट डाले जाएंगे. वहीं इन चुनावों के लिए पूरा देश तैयार है. वहीं, चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही की भी सप्लाई सभी राज्यों को कर दी गई. आखिर इस स्याही में ऐसा क्या है कि 1962 से इसका इस्तेमाल लगातार होता आ रहा है. अभी तक क्यों नहीं कोई बदलाव किया गया, ऐसा क्या खास है, इस रिपोर्ट में जानते है. 

'चुनावी स्याही' में ऐसा क्या खास है कि नहीं मिटती है, 1962 से अब तक क्यों नहीं हुआ बदलाव ?

लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियां शबाब पर है. देश में 19 अप्रैल को लोकसभा की 102 सीटों पर वोट डाले जाएंगे. वहीं इन चुनावों के लिए पूरा देश तैयार है. वहीं, चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही की भी सप्लाई सभी राज्यों को कर दी गई है. चुनाव आयोग के मुताबिक इस बार लोकसभा चुनाव में करीब 97 करोड़ वोटर्स हैं. सबसे ज्यादा 15.30 करोड़ वोटर्स उत्तर प्रदेश में हैं. जबकि, सबसे कम 57,500 वोटर्स लक्षद्वीप में हैं. 

UP में होता है सबसे ज्यादा स्याही का इस्तेमाल
उत्तर प्रदेश के बाद स्याही की सबसे ज्यादा 2.68 लाख शीशियां महाराष्ट्र में भेजी गई हैं. उसके बाद 2 लाख पश्चिम बंगाल, 1.93 लाख बिहार, 1.75 लाख तमिलनाडु, 1.52 लाख मध्य प्रदेश, 1.50 लाख तेलंगाना, 1.32 लाख कर्नाटक, 1.30 लाख राजस्थान, 1.16 लाख आंध्र प्रदेश और 1.13 लाख गुजरात में भेजी गईं हैं. स्याही की एक शीशी 10 ml की होती है. एक शीशी से लगभग 700 लोगों की उंगली पर स्याही लगाई जा सकती है. एक पोलिंग बूथ पर लगभग 15 सौ वोटर होते हैं. चुनाव आयोग के मुताबिक, इस बार देशभर में 12 लाख से ज्यादा पोलिंग स्टेशन बनाए गए हैं.

दुनिया के कई मुल्कों करते है इस्तेमाल
वहीं बात करें चुनावों में इस्तेमाल होने वाली इस अमिट स्याही की तो ये सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई मुल्कों में भी इस्तेमाल होती है. कंपनी के एमडी इरफान ने बताया कि ये अमिट स्याही कनाडा, घाना, नाइजीरिया, मंगोलिया, मलेशिया, नेपाल, साउथ अफ्रीका और मालदीव समेत 25 से ज्यादा देशों में एक्सपोर्ट की जाती है. हालांकि, इन देशों में स्याही लगाने का तरीका अलग होता है. उदाहरण के लिए कंबोडिया और मालदीव में वोटर को अपनी उंगली स्याही में डुबोनी होती है. बुर्किना फासो में इसे ब्रश से लगाया जाता है. जबकि, तुर्की में नोजल के जरिए स्याही वोटर को लगाई जाती है.

1962 के चुनाव में पहली बार हुआ इस्तेमाल 
भारत में पहली बार 1952 में चुनाव हुए थे, तब स्याही का इस्तेमाल नहीं होता था. 1957 के चुनाव में भी इस्तेमाल नहीं हुआ. इसके बाद चुनाव आयोग को जब किसी दूसरे की जगह वोट डालने और दो बार वोट डालने की शिकायतें मिलीं, तो इसका समाधान ढूंढा जाने लगा. इसके बाद चुनाव आयोग ने नेशनल फिजिकल लैबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) से एक ऐसी स्याही बनाने को कहा, जिसे पानी या किसी केमिकल से भी न मिटाया जा सके. इसके बाद एनपीएल ने कर्नाटक की मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड कंपनी को इस स्याही बनाने का ऑर्डर दिया. इस कंपनी को 1937 में मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार ने स्थापित किया था. आजादी के बाद इस कंपनी का कर्नाटक सरकार ने अधिग्रहण कर लिया. 1962 के चुनाव में पहली बार अमिट स्याही का इस्तेमाल हुआ. भारतीय चुनाव में इस स्याही के इस्तेमाल का श्रेय पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को दिया जाता है. 1962 से ही हर चुनाव में इस स्याही का इस्तेमाल होता है.

स्किन के सेल पुराने होने पर ही निकलता है निशान 
इस स्याही को बनाने का फॉर्मूला कंपनी ने कभी साझा नहीं किया. इस स्याही को बनाने के लिए सिल्वर नाइट्रेट केमिकल का इस्तेमाल होता है. सिल्वर नाइट्रेट इस स्याही को फोटोसेंसेटिव नेचर का बनाता है, जिससे ये धूप के संपर्क में आने पर और गहरी हो जाती है. इतना ही नहीं, पानी लगने के बाद ये और गहरा हो जाता है. जब ये स्याही उंगली पर लगाई जाती है तो भूरे रंग की होती है. फिर कुछ ही समय में ये गहरे बैंगनी रंग में बदल जाती है. और फिर काले रंग की हो जाती है. वहीं जब ये स्याही उंगली में लगती है तो इसमें मौजूद सिल्वर नाइट्रेट हमारे शरीर में मौजूद नमक के साथ मिलकर सिल्वर क्लोराइड बनाता है. सिल्वर क्लोराइड स्किन से चिपक जाता है और पानी या किसी और केमिकल से नहीं हटता. इस स्याही का निशान धीरे-धीरे तभी जाता है, जब स्किन के सेल पुराने हो जाते हैं और उतरने लगते हैं. आपको बता दें कि इस स्याही को पूरी तरह से हटने में 15 दिन का समय लगता है.