Haryana Election: हरियाणा के नेता की कहानी जिसने 'वन नेशन,वन इलेक्शन' की परंपरा को तोड़ा, एक क्लिक में पढ़े पूरा किस्सा
Haryana Assembly Elections: हरियाणा विधानसभा चुनावों में "आया राम, गया राम" का मुद्दा फिर से गरमाया हुआ है. जानें इस राजनीतिक मुहावरे की कहानी और कैसे यह हरियाणा की राजनीति में जड़ें जमा चुका है।
हरियाणा विधानसभा चुनावों के बीच राजनीतिक दलों में वार-पलटवार का दौर जारी है। इसी बीच, 'आया राम-गया राम' की चर्चा तेज हो गई। बीते दिनों गायक कन्हैया मित्तल ने बीजेपी से टिकट न मिलने पर कांग्रेस के साथ जाने का मन बनाया हालांकि, वह जल्द ही बयान से पलट गए और प्रशंसकों से माफी मांगी। उन्होंने कहा वह हमेशा सनातन के साथ हैं और रहेंगे। जो राम को लाएं हैं, हम उनको लाएं गाने ने यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के पक्ष में खूब माहौल बनाया था, लेकिन अब ये ट्रेंड हरियाणा में भी दिखाई दे रहा है। खैर यहां पर दल-बदल कीर राजनीति का इतिहास काफी पुराना है। 57 साल पहले शुरू ये मुहावरा आज भी याद किया जाता है।
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1970 में बदली हरियाणा की राजनीति
बता दें, 70 के दशक में हरियाणा की राजनीति में अस्थिरता का माहौल था, जिसने केवल केंद्र सरकार को दल-बदल कानून बदलने पर ही मजबूर नहीं किया बल्कि 'वन नेशन,वन इलेक्शन' की परंपरा को बाधित किया। इसके बाद देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे। देखा जाये तो आ'या राम गया राम' की कहानी की शुरुआत हरियाणा में 1 नवबंर 1966 को हुई। जब हरियाणा पंजाब से अलग होकर नया राज्य बना था। यहां पर पहली बार 1967 में विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने 81 सीटों में से 48 सीटें जीतकर बंपर जीत हासिल की। जबकि पलवल की हसनपुर सीट से निर्दलीय प्रत्याशी गयालाल को जीत मिली। उन्होंने पहले तो कांग्रेस का समर्थन किया लेकिन बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच गयालाल ने कांग्रेस का दामन छोड़ संयुक्त विधायक दल को अपना साथी बना लिया। वह यही नहीं रुके, उन्होंने 9 घंटे के अंदर तीन बार पार्टी चेंज की। पहले कांग्रेस फिर एसवीडी, फिर कांग्रेस और आखिर में एसवीडी के साथ रहने का फैसला किया। इस दौरान के तत्कालीन सीएम राव बीरेंद्र सिंह ने प्रेस कॉन्प्रेस कर कहा था कि 'गया राम अब आया राम हैं' और तभी से यह मुहावरा हरियाण कीर राजनिति का केंद्र बन गया।
अभी तक जारी है दल-बदल
गया लाल की इन कारनामों में हरियाणा में राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। उन्होंने इस कदम के बाद लगभग 1967-68 के बीच कई नेताओं से पार्टी बदली। जिससे लगातार सूबे में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी और केंद्र को दखल देना पड़ा। 1985 आते-आते रजीव गांधी दल-बदल विरोधी कानून लेकर आए। जिसमें कहा गया था कि अगर कोई नेता पार्टी छोड़ता है तो उसे अयोग्य करार दिया जा सकता,हालांकि इसका तोड़ जल्द ही निकाल लिया गया और दो-तिहाई विधायकों के दल-बदल को वैध करार दिया गया लेकिन इसके बाद भी राज्य में विधायकों की पलटी मारने की फेरहिस्त लंबी होती चली गई। 2003 में कानून को और सख्त किया गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। महत्वाकांक्षाओं के चलते नेताओं का दल बदलना हरियाणा में आम घटना हो गई। सूबे में कई दल-बदल की सरकार बनी लेकिन कोई कुछ खास कमाल नहीं दिखाई पाई। बता दें, गया लाल की राजनीतिक विरासत संभाल रहे उनके बेटे उदयभान भी कई पार्टियों का हिस्सा रहे हैं। मौजूदा समय में वह हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
जोरों पर वन नेशन-वन इलेक्शन की चर्चा
बहरहाल, देश में एक बार फिर वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर चर्चा तेज हो गई है। ये कोई पहली बार नही हैं। इससे पहले 1952 से 1967 तक देश में लोकसभा और राज्यसभा चुनाव एक साथ होते थे लेकिन हरियाणा समेत कई राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण ये परंपरा बाधित हुई और 1968-69 के बीच कार्यकाल से पहले विधानसभाओं को भंग करना पड़ा, जिससे परंपरा का अंत हो गया।