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कभी भारत की शान रहने वाले गोरखा सैनिक क्यों हुए इंडियन आर्मी से दूर? जाने कारण और इतिहास

गोरखा सैनिक अपने शौर्य, वफादारी, और साहस के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। नेपाली पहाड़ों से ताल्लुक रखने वाले ये योद्धा भारतीय सेना का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्होंने 1814 से लेकर आज तक कई युद्धों में अपनी बहादुरी दिखाई है। जानिए गोरखा रेजीमेंट का इतिहास और उनका भारतीय सेना में योगदान के बारे में। 

कभी भारत की शान रहने वाले गोरखा सैनिक क्यों हुए इंडियन आर्मी से दूर? जाने कारण और इतिहास

जब बात जंबाज सैनिकों की आती है तो गोरखा सैनिकों का नाम जरूर लिया जाता है। उनके शौर्य और साहस के आगे अच्छे-अच्छे योद्धा भी धराशाई हो जाते हैं। जिन्हें आम बोलचाल में लड़ाका के नाम से जान जाता है। उनकी जैसी वफादारी शायद ही कोई इंसान कर सके। इतना ही  गोरखा योद्धा शारीरिक-मानसिक से इतना मजबूत होते हैं कि वह पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी भी बिना किसी उपकरण और सहायता के पास पहुंच जाते हैं। ऐसे में जानेंगे कि गोरखा सैनिक कौन है और ये कहां से ताल्लुक रखते हैं।

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आखिर कौन होते हैं गोरखा सैनिक?

गोरखा सैनिक नेपाल की पहाड़ी जाति  से आते हैं। साहस और वफादारी के कारण ये दुनियाभर में प्रसिद्ध है। गोरखा सैनिकों की पहचान उनके ट्रेडिशनल हथियार खुखरी से होती है जो 18 इंच लंबा तेज धारदार चाकू होता है। खुखरी को लेकर नेपाल में एक कहावत प्रसिद्ध है- खुखरी अगर म्यान से निकली है तो उसे दुश्मन का खून चाहिए।  

गोरखा सैनिकों का इतिहास

गोरखा सैनिकों का भारतीय इतिहास में प्रमुख योगदान 1814-1816 के गोरखा युद्ध से शुरू हुआ, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल के गोरखा राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ा। युद्ध में गोरखा योद्धाओं की बहादुरी से प्रभावित होकर, ब्रिटिश सेना ने उनके साथ मित्रता का प्रस्ताव रखा और उन्हें अपनी सेना में शामिल किया। इसी तरह "गोरखा रेजिमेंट" का गठन हुआ। गोरखा सैनिकों ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और कई युद्धों में अपनी वीरता दिखाई। वहीं भारत को आजादी मिलने के बाद भी गोरखा रेजिमेंट इंडियन आर्मी का हिस्सा बनी। वर्तमान में भी, भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

 आजादी के वक्त गोरखा रेजीमेंट 

1947 को जब देश आजाद हुई उस वक्त गोरखा रेजीमेंट की संख्या 10 हुआ करती थी। अग्रेंजों ने गोरखा सैनिकों पर ये फैसला छोड़ दिया कि वह भारत और पाकिस्तान कहां जाएंगे। जहां 6 रेजीमेंट ने हिंदुस्तान को चुना। गोरखा सैनिकों के बंटवारे के लिए एक पैक्ट भी साइन हुआ था जिसे 1947 गोरखा सोल्जर पैक्ट कहा जाता है। आजादी के बाद से ही गोरखा सैनिकों की भर्ती इंडियन आर्मी होती रही। वहीं एक ओर गोरखा रेजीमेंट का गठन किया गया। जिसके बाद इसकी संख्या 6 से बढ़कर 7 हो गई। कारगिल युद्ध हो या फिर 1965 का भारत-पाकिस्तान वॉर गोरखा सैनिकों ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिक रहे। 

धीरे-धीरे कम होती गोरखा सैनिकों की संख्या

समय के बाद इंडियन आर्मी में गोरखा सैनिकों की संख्या में गिरवाट आ रही है। 2020 में भारत-नेपाल बॉर्डर विवाद में भी गोरखा सैनिकों का मुद्दा जोरों-शोरों से उठा था। तब नेपाल के विदेश मंत्री ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि 1947 में हुई संधि अब प्रासंगिक नहीं है। ये मुद्द और तब गरमा गया जब केंद्र सरकार अग्निपथ योजना लेकर आई। नेपाल सरकार ने गोरखा सैनिकों के लिए अग्निपथ योजना का विरोध किया था और कहा था कि इस योजना के तहत गोरखा सैनिकों की भर्ती नहीं होगी क्योंकि ये 1947 में हुई संधि को उल्लंघन हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो भारतीय सेना में कभी गोरखा सैनिकों की संख्या 40 हजार के आसपास थी। जिसमें नेपाली गोरखा लगभग 60 फीसदी थी। हालांकि बीते कुछ सालो में इसमें भारी गिरावट देखी गई है।