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तेदुओं के लिए लड़ाई लड़कर जीतने वाले शत्रुंजय सिंह की कहानी, जो हैं भारत के ‘ब्लैक पैंथर’

अगर किसी भी व्यक्ति के सामने तेंदुआ आ जाए, मुमकिन है ज्यादातर तो उसी समय दहशत में आ जाएंगे। नहीं तो जितनी तेज मुमकिन हो, वो भागकर अपनी जान बचाना चाहेंगे। लेकिन अगर हम आपको एक ऐसी रियल स्टोरी बताएं, जिसने न सिर्फ तेंदुए से दोस्ती कर ली, बल्कि उनके बचाव के लिए जानी-मानी फिल्म 'द ब्लैक पैंथर' की तरह ही पूरी दुनिया से लोहा लिया और आखिर में जीत भी हासिल की। पढ़ने में काफी इंटरेस्टिंग लगा न, तो चलिए आपको पूरी कहानी बताते हैं....

तेदुओं के लिए लड़ाई लड़कर जीतने वाले शत्रुंजय सिंह की कहानी, जो हैं भारत के ‘ब्लैक पैंथर’
Story of Shatrunjay Singh, who won the battle for leopards, who is the real 'Black Panther' of India

अगर किसी भी व्यक्ति के सामने तेंदुआ आ जाए, मुमकिन है ज्यादातर तो उसी समय दहशत में आ जाएंगे। नहीं तो जितनी तेज मुमकिन हो, वो भागकर अपनी जान बचाना चाहेंगे। लेकिन अगर हम आपको एक ऐसी रियल स्टोरी बताएं, जिसने न सिर्फ तेंदुए से दोस्ती कर ली, बल्कि बचाव के लिए जानी-मानी फिल्म 'द ब्लैक पैंथर' की तरह ही पूरी दुनिया से लोहा लिया और आखिर में जीत भी हासिल की। पढ़ने में काफी इंटरेस्टिंग लगा न, तो चलिए आपको पूरी कहानी बताते हैं....


'जवाई लेपर्ड रिजर्व', तेंदुओं का गढ़ 


इस कहानी की शुरुआत होती है, 'जवाई लेपर्ड रिजर्व' से। जिसे भारत में तेंदुओं का घर कहा जाता है। देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के पाली जिले की जवाई की पहाड़ियों के बीच बनी गुफाओं में काफी बड़ी संख्या में तेंदुए रहते हैं। यहां पर ही बिना किसी डर के रबारी समुदाय अपने मवेशियों को यहां पर ही चराते दिखते हैं। इस समुदाए की पहचान होती है कि वो सफेद रंग की कमीज, सिर पर लाल पगड़ी और कंधे पर तौलिया रखते हैं। 

'द बैटर इंडिया' की एक रिपोर्ट कहती है कि, रबारी समुदाय की एक और बहादुरी भरी पहचान है। रबारी समुदाय के लोग तेंदुओं के साथ मिल-जुलकर रहने के लिए भी जाने जाते हैं। इनके इतिहास पर नजर डालें, तो इन खानाबदोश चरवाहों का समूह लगभग 1 हजार साल पहले ईरान से भारत आया था। जब देश के अलग-अलग हिस्सों से तेदुओं के आक्रमण की खबरें आ रहीं थी, तब इस समुदाय ने तेंदुओं के साथ मिल-जुलकर रहने की खबर से सुर्खियां बटोरी थीं। 


कैसे बिना डर के रहते हैं तेदुओं के बीच 


चाहे कुछ भी हो, लेकिन खूंखार जानवरों के बीच रहना कोई छोटी बात तो नहीं है। तो आखिर वो क्या वजह हो सकती है कि तेंदुए और रबारी समुदाय दोनों साथ रह पाते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स क मुताबिक, रबारी समुदाय से जुड़े हर्तनाराम बताते हैं, 'तेंदुओं को हमारी तरह से किसी तरह की कोई परेशानी ना हो, हम इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं। हमारे यहां शादियों में तेज आवाज में गाने नहीं बजते। यहां तक कि हम लोग दीवाली पर पटाखे भी नहीं चलाते, क्योंकि वो शोर इन तेंदुओं के लिए ठीक नहीं है। तेंदुओं के लिए ये सम्मान ही हमारे साथ इनकी दोस्ती की वजह है। अगर कोई बाहर का आदमी भी हमारे साथ है, तो ये तेंदुए उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।' 


जब तेंदुओं पर आया था संकट


लेकिन तेंदुओं पर एक वक्त पर संकट भी आया था, उस समय तेंदुओं के हक की लड़ाई के लिए शत्रुंजय सिंह सामने आए थे। शत्रुंजय सिंह से तेंदुओं के लिए अपनी नौकरी को भी छोड़ दिया। दरअसल, साल 2013 में शत्रुंजय सिंह बेरा गांव से 20 किलोमीटर दूर पिंडवाड़ा के अपने फॉर्म में छुट्टियां बिताने आए थे। वो दोपहर का समय था, अचानक शत्रुंजय ने एक धमाके की आवाज सुनी। जब उन्होंने आसपास के लोगों से इस बारे में पूछा तो पता चला कि सरकार ने इस इलाके में नौ खदानें आवंटित की हैं। जिसके बाद 144 खदानों को और भी आवंटित किया जाएगा। अब मसला ये था कि खदानों से धमाकों की तेज आवाज आ रही थी, जो तेंदुओं की आबादी के लिए बड़ा खतरा थी। उस समय शायद इस बात का किसी को इल्म नहीं था, लेकिन शत्रुंजय सिंह आने वाले खतरे को भांप लिया था, कि धमाके अगर ऐसे जारी रहे, तो तेंदुओं का ये घर खत्म हो जाएगा। आबादी तो घटेगी ही साथ ही तेंदुओं के व्यवहार पर भी असर देखने को मिलेगा।

तेंदुओं की रक्षा के लिए आधिकारियों के आगे-पीछे घूमें

इस खतरे को जानकर शत्रुंजय सिंह स्थानीय लोगों से बातचीत कर वन विभाग के अधिकारियों से भी मिले। शत्रुंजय सिंह ने उस समय पाली के डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) आईएफएस अधिकारी बालाजी कारी के सामने तेंदुओं का घर बचाने की पूरी कहानी रखी। इस लड़ाई को मिलकर लड़ना, तो चुना गया लेकिन ये लड़ाई आसान नहीं थी। शत्रुंजय सिंह ने करीब तीन साल से ज्यादा सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के आगे-पीछे घूमते रहे। शत्रुंजय ने अपने ही ड्राइवर के घर में किराए रहे। 


आखिरकार मिली जीत


इन सारी चीजों को देखकर लोगों ने उनका मजाक भी बनाया। लेकिन वो रुके नहीं, आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और सरकार ने सभी खदानों का आवंटन समय से पहले ही रोक दिया। जिसके बाद इलाके में धमाकों की आवाजें भी बंद हो गईं। शत्रुंजय सिंह ने नौकरी छोड़ दी और तय किया कि वो तेंदुओं के संरक्षण पर ही ध्यान देंगे। शत्रुंजय सिंह यहां के जानवरों पर डॉक्यूमेंट्री बना चुके हैं। जिसके बाद उनकी पहचान तेंदुओं को बचाने वाले एक फिल्ममेकर के तौर पर है।