Rajasthan By-Election: उपचुनावों में 'कास्ट पॉलटिक्स' का खेला, जानिए कौन बिगड़ेगा किसका खेल !
राजस्थान में सात सीटों पर हुए उपचुनावों में जातिगत समीकरणों का बड़ा रोल रहा है। जानिए किस जाति ने सर्वाधिक वोट किया और किसकी खेल बनेगा-बिगड़ेगा। भारत रफ्तार की इस स्पेशल रिपोर्ट में जानिए चुनावों का विस्तृत विश्लेषण।
राजस्थान में देवली उनियारा सीट में हुए बवाल के साथ सात सीटों पर चुनाव संपन्न हो गया है। बीजेपी-कांग्रेस सभी जीत के बड़े-बड़े दावा करते हैं लेकिन वोट प्रतिशत के आधार पर किस जाति ने सर्वाधिक वोट किया और किसकी खेल बनेगा-बिगड़ेगा। जानिए भारत रफ्तार की इस स्पेशल रिपोर्ट में-
जातिगत समीकरण बिगाड़ेंगे खेल ?
राजस्थान हो या फिर किसी देश में किसी भी राज्य में चुनाव। सभी दल जातियों पर जरूर फोकस करते हैं। इसके बिना कोई भी पार्टी सत्ता में आ ही नहीं सकती है। हर पार्टी का सभी प्रदेशों में अपना अलग वोटबैंक हैं। जिन्हें साधने के लिए वह रेवड़ियां अक्सर बांटते नजर आते हैं। हमेशा की तरह इस बार भी राजस्थान में जातिगत समीकरण भारी रहे। खींवसर में जाट, दौसा में गुर्जर और झुंझुनूं में एससी-एसटी वोटर्स ने जमकर वोटिंग की। संलूबर-चौरासी में आदिवासी तो अलवर में मुस्लिम वोटों पर सभी की निगाहें टिकी हैं।
उपचुनाव में हमेशा हावी रही जाति
जब बात उपचुनाव की आती है तो कहा जाता है। ये वही पार्टी जीतती है जो सत्ता में होती है लेकिन बीते कुछ सालों में इस पैर्टन में बदलाव देखने को मिला है। इतिहास के झरोखे को देखे तो 1952 के पहले आम चुनावों में राजस्थान की 181 में 51 सीटों पर राजपूतों का कब्जा था,जिनमें से केवल तीन कांग्रेस के थे। उस वक्त के ज्यादातर राजपूत कांग्रेस के खिलाफ थे। समय के साथ जय नारायण व्यास ने 22 विधायकों को कांग्रेस की ओर कर लिया। इसके बाद व्यास वेस मोहनलाल सुखाड़िया का शक्ति परीक्षण हुआ। जिसमें जाट नेताओं ने सुखाड़िया का साथ दिया और प्रदेश में जाट वोटर्स का वर्चस्व बढ़ने लगा। 1957 तक राजस्थान की राजनीति जाट-गुर्जर और राजपूतों के इर्दगिर्द घूमती थी लेकिन 1957 आते-आते ये समीकरण और भी ज्यादा मजबूत होते गये।
1990 में गैर कांग्रेस सरकार
1990 का दौर आते-आते राजस्थान में सभी जातियां अपना अलग रुतबा रखना लगी थीं। जिसका असर आम चुनाव में होना तय था। ये वह साल था जब राजस्थान में पहली बार नॉन कांग्रेस सरकार आई। जाट-राजपूत समीकरण के चलते बीजेपी गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब हो पाई थी। 30 अगस्त 1996 को नाथूराम मिर्धा को निधन हो जाने के बाद 1997 नागौर मे उपचुनाव हुए और बीजेपी प्रत्याशी भानूराम मिर्धा ने कांग्रेस प्रत्याशी और केंद्रीय मंत्री रामनिवास मिर्धा को 131 वोटों से शिकस्त दी थी। तबसे नागौर के समीकरण बदलते चले गए। ऐसा ही कुछ हर सीटों का है।
जब अटल बिहारी वाइजपेयी ने बदले समीकरण
1999 के लोकसभा चुनाव के दौरान एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसभा करते हुए जाटों को ओबीसी में सम्मिलित करने का वादा किया था। जिसका असर चुनावों में देखने को मिला और बीजेपी ने 23 लोकसभा सीटों में से 16 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि कांग्रेस के कार्यकाल की बात करें तो अशोक गहलोत की सरकार में जाट नेताओं की संख्या सर्वाधिक थी। इसके बाद गुर्जर-मीणा जातियों के आंदोलन हुए। गुर्जरों ने एसटी जाति में शामिल होने की मांग की तो दोनों जातियां आमने-सामने आ गईं। जिसके बाद सभी दलों ने अपनी-अपनी जातियों को मनाने के लिए कई पैंतरे अपनाएं। इससे इतर बात झुंझुनूं की करें तो यहां 1980 को छोड़कर हमेशा ओला परिवार का दबदबा रहा है। इसी तरह 2008 से खींवसर सीट पर हनुमान बेनीवाल का कब्जा है। इस तरह दौसा में पार्टियों ने एससी-एसटी प्रत्याशियों को मैदान में उतारते हुए ध्रुवीकरण करने की पूरी कोशिश की है। जबकि चौरासी-सलूंबर मे पार्टी भी जाति के नाम पर बनी है भारतीय आदिवासी पार्टी। जो कांग्रेस-बीजेपी दोनों के लिए सिरदर्द बनी हुई है। आदिवासी वोटों को साधने के लिए मुख्य दलों ने रणनीति में बदलाव करना शुरू कर दिया है। बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा इस बार के उपचुनाव में कौन सी पार्टी सभी जातियों को साधने में कामयाब रहती है।